एक बार फिर से वही सब कुछ हो रहा है। किसी महान व्यक्तित्व की मौत के तुरंत बाद उस पर वैचारिकता के आधार पर छींटाकशी। यही हमने अटल बिहारी वाजपेयी के वक़्त देखा था, यही हमने डॉ. राहत इंदौरी के वक़्त देखा था, और अब यही हम लता मंगेशकर के वक़्त देख रहे हैं। अगर वैचारिकता के आधार पर ही लोग याद रखे जाने लगे, फिर तो शायद ही दुनिया में कोई भी शख़्स समाज के सारे वर्गों द्वारा याद रखा जायेगा। आपसे कोई नहीं कह रहा कि लता मंगेशकर को एक महान इंसान के तौर पर याद रखिए।
बीते ज़माने की जानी-मानी गायिका मुबारक बेग़म ने एक इंटरव्यू के दौरान इशारों-इशारों में कहा भी था कि उन्हें कम काम मिलने के पीछे कहीं न कहीं लता मंगेशकर का हाथ रहा है, मगर क्या इस बात से बतौर कलाकार लता मंगेशकर का क़द ज़रा सा भी कम होता है? बिल्कुल नहीं। एक कलाकार से इंसानी तौर पर महानता की उम्मीद करना आख़िर इतना ज़रूरी क्यों है? अगर कोई कलाकार सामाजिक सरोकारों की जगह कला साधना को तरजीह दे, तो क्यों उसे भला-बुरा कहा जाये?
अगर उसकी विचारधारा आपकी विचारधारा के विपरीत है, तो आप उसकी सम्पूर्ण कला को ख़ारिज कर देंगे? इसे जहालत नहीं तो और क्या कहा जा सकता है? व्यक्तिगत तौर पर मुझे गीता दत्त की आवाज़ ज़्यादा पसंद है और मुझे लगता है कि अगर वो असमय हमें छोड़ कर नहीं गयी होतीं, तो शायद वो लता मंगेशकर से बड़ी गायिका बनने की क़ुव्वत रखती थीं। मगर सच यह भी है कि जब हिन्दी फ़िल्मी गीतों का ज़िक्र होगा, तो लता मंगेशकर का ज़िक्र शायद सबसे चमकीले हर्फ़ में होगा। और उस हर्फ़ को आप तो क्या, आपके फ़रिश्ते भी नहीं मिटा सकते।
आप लाख लता मंगेशकर को भुलाना चाहें, मगर उनके हज़ारों गीत आपको उन्हें भूलने नहीं देंगे। बाक़ी ऑटो-टयून के दौर में किसी सुर-ताल-लय के जानकार से पूछ कर देखिएगा लता मंगेशकर होना क्या होता है, वो आपको बेहतर बताएगा। और प्लीज़-प्लीज़-प्लीज़, किसी कलाकार के मरते ही उसकी विचारधारा को खंगालना, हमारी तरफ़ का है या दूसरी तरफ़ का, ये सारी घटिया हरकतें बंद कीजिए। यह हमारी संस्कृति नहीं है।