आज़ादी के दो-तीन दशक बाद छत्तीसगढ़ के दिग्गज नेता दुनिया से जा चुके थे, और मध्यप्रदेश में जुड़े होने की वजह से हिंदी भाषा हावी हो गयी थी, ऐसे में छत्तीसगढ़ी भाषा को तुच्छ समझा जाने लगा था. गांव में तो छत्तीसगढ़ी बोली जाती थी, लेकिन उसी गांव के किसी युवा की नौकरी यदि शहरों में लग जाए तो दफ्तरों से लेकर आमजन के बीच छत्तीसगढ़ी भाषा बोलना जैसे हीन भावना का कारण बन चुका था.
ऐसे समय में हबीब तनवीर ने ठेठ छत्तीसगढ़ी भाषा में बने फोक नाटकों के माध्यम से ना सिर्फ छत्तीसगढ़ी भाषा को उसका गर्व वापस दिलवाया बल्कि हिन्दुस्तानी थियेटर को विश्व पटल पर स्थापित किया। हबीब छत्तीसगढ़ के बीहड़ गाँव में महीनों रूककर, कार्यशालाओं और अपनी थियेटर शिक्षा से ठेठ छत्तीसगढ़ी युवाओं को अपने थियेटर में जोड़ लेते और दुनियां के सौ से अधिक देशों में उनके होने वाले थियेटर आयोजनों में जगह भी देते थे, कला और भाषा के इस अनूठे गठजोड़ ने छत्तीसगढ़ को एक बार फिर गर्व के साथ उठ खड़े होने और अपनी भाषा को सहजता और सम्प्रभुता के साथ बोलने और अपने बात रखने का साहस दिया। हवीब वैसे वो कलाकार थे, लेकिन उनकी भाषायी प्रयोग ने छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी भाषा को हीन भावना के अंधेरे से निकाल दिया.
छत्तीगसढ़ के उदय में कलाकारों और साहित्यकारों का बहुत बड़ा योगदान रहा हैं, चारणकवि दलराम राव, पंडित सुंदरलाल शर्मा, और हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी भाषा का तब साथ दिया जब इसकी सबसे अधिक ज़रुरत थी.
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