– 1931 में गोलमेज़ सम्मेलन के सिलसिले में महात्मा गांधी लंदन पहुंचे थे। संयोग से चार्ली चैप्लिन भी तब वहीं थे। गांधी जी से उनकी भेंट हुई।
– ये दोनों एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न थे। गांधीजी तो सिनेमा भी नहीं देखते थे। किंतु इन दो विलक्षण व्यक्तित्वों की यह मुलाक़ात विश्व-कल्पना में सजीव बनी हुई है। गांधी-चैप्लिन भेंटवार्ता पर लेखक हेमंत ने आधी हक़ीक़त और आधा फ़साना शैली की एक औपन्यासिक कृति रची है — चैप्लिन का गांधी।
– यह अंश उसी पुस्तक से प्रस्तुत किया जा रहा है, जो यह बतलाता है कि किन चीज़ों ने चैप्लिन को गांधी जी से मिलने के लिए प्रेरित किया था।
1931 में गोलमेज़ सम्मेलन के सिलसिले में महात्मा गांधी लंदन पहुंचे थे। संयोग से चार्ली चैप्लिन भी तब वहीं थे। गांधी जी से उनकी भेंट हुई। ये दोनों एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न थे। गांधीजी तो सिनेमा भी नहीं देखते थे। किंतु इन दो विलक्षण व्यक्तित्वों की यह मुलाक़ात विश्व-कल्पना में सजीव बनी हुई है। गांधी-चैप्लिन भेंटवार्ता पर लेखक हेमंत ने आधी हक़ीक़त और आधा फ़साना शैली की एक औपन्यासिक कृति रची है — चैप्लिन का गांधी। यह अंश उसी पुस्तक से प्रस्तुत किया जा रहा है, जो यह बतलाता है कि किन चीज़ों ने चैप्लिन को गांधी जी से मिलने के लिए प्रेरित किया था।
मूक फ़िल्मों का शहंशाह चार्ली चैप्लिन अमेरिका से अपनी मातृभूमि लंदन पहुंचा था। पूरे दस बरस बाद। वह अपनी फ़िल्म ‘द सिटी लाइट्स’ को इंग्लैंड में लॉन्च करने आया था। सो वह लंदन के एक बड़े होटल के अति उत्तम सुइट में टिका। अमीरी को जीना और विलासिता की आदत डालने के लिए मशक़्क़त करना उसे रोमांचक लग रहा था। घूम-घामकर जब भी वह होटल के अपने कमरे में क़दम रखता, उसे महसूस होता जैसे वह सोने के स्वर्ग में प्रवेश कर रहा है। वहीं गांधी भी पूरे सत्रह वर्ष बाद लंदन पहुंच रहे थे। वे ब्रिटिश सरकार के आमंत्रण पर गोलमेज़ सम्मेलन में शिरक़त करने आ रहे थे। चैप्लिन ने अख़बारों में पढ़ा कि मिस्टर गांधी भले ब्रिटिश सरकार के न्योते पर आ रहे हैं, लेकिन वे लंदन के ईस्ट-एंड की झोपड़पट्टी में ठहरेंगे। पिछले सप्ताह-दस दिनों से लंदन की तमाम झोपड़पट्टियों में अजीब-सी उमंग व्याप्त थी। ग़रीब-ग़ुरबों में गांधी को नज़दीक से देखने का उत्साह झलक रहा था। वे जब-तब चौक-चौराहों पर जमा होकर गांधी की यूं जयकार करते, जैसे उनका कोई सगा आ रहा हो। यह सूचना चैप्लिन को जाने-अनजाने चुभ गई कि लंदन के ग़रीब तो गांधी के बारे में उससे भी कम जानते हैं, तब भी ये उत्साह-उमंग। उसे चुपके से बचपन की यादें कचोट गईं। बड़े होटल में रहना उसके लिए उत्तेजित करने वाली चुनौती बन गई। वह बेचैन हो उठा- गांधी उसी तरह की झोपड़पट्टी में टिकेंगे, जिसमें मैं बीस साल पहले अपनी मां के साथ रहता था। लंदन मेरी जन्मभूमि, मातृभूमि। मैं ग़रीब था, तब यह देश मेरा था। अमीर बनकर लौटा तो होटल में टिका हूं। क्या यह अपने ही देश में पराया हो जाने का प्रमाण है? चैप्लिन विचलित हो गया। उसने सोफ़े से उठने की कोशिश की- उठा, लेकिन फिर उसमें और गहरे धंस गया।
डेली मेल में ख़बर छपी कि मार्साई में चुंगी निरीक्षक ने गांधी के सामान की जांच की तो उसे केवल चरखे, तश्तरियां, बकरी के दूध का एक डिब्बा, हाथ से काते गए सूत की पांच लंगोटियां और एक तौलिया मिला। ‘लाइफ़’ पत्रिका में भी इसी आशय का कार्टून छपा था। कार्टूनिस्ट ने ब्रिटेन के कस्टम अधिकारियों को इस बात पर अचम्भा प्रकट करते दिखाया कि गांधी का सूटकेस ख़ाली है। चैप्लिन मन ही मन बुदबुदाया- ‘बहुरुपिया! मेरे जैसा!’ लंदन के मीडिया ने गांधी का मज़ाक़ बनाकर रखा था। बौद्धिक वर्ग में उनकी बातों, पहनावे, उपवासों और प्रार्थनाओं की खिल्ली उड़ाई जाती। उनके आगमन की सूचना कार्टून-कैरीकैचर बनाने वालों के लिए नायाब मसाला बनी हुई थी। चैप्लिन का भी सुबह-शाम का यह रूटीन हो गया था- होटल से निकलने से पहले गांधी के लंदन आगमन की ख़बरें पढ़ना, उनके कार्टून देखकर हंसना, विरोधियों की टिप्पणियां पढ़कर मज़ा लेना। गांधी को पढ़ते हुए कभी हंसते-हंसते सोच में डुबकी लगाना, कभी सोचते-सोचते हंसी में ग़ोता खाना। कभी-कभी तो इसके चलते वह अपनी फ़िल्म के प्रदर्शन से सम्बंधित विज्ञापन और ख़बरें देखना भी भूल जाता।
डेली मेल में एक कार्टून छपा था- गोलमेज़ वार्ता के लिए गांधी आ रहे हैं। उनके सिर पर दूध की कटोरी है और उनके पीछे बकरियां हैं। चैप्लिन सोच में डूब गया- विचित्र स्थिति है। पिछले साल तक यही मीडिया और लंदन का बौद्धिक वर्ग गांधी की राजनीतिक साफ़गोई और इस्पात जैसी इच्छाशक्ति पर फ़िदा नज़र आता था। गांधी से बातचीत, गांधी से मुलाक़ात, गांधी का बयान, लेकिन सबमें गांधी की तासीर अलग और तेवर जुदा। डेली मेल, लाइफ़, डेली हेरल्ड, न्यूयॉर्क टाइम्स, मैनचेस्टर गार्डियन, न्यूज़ क्रॉनिकल- और भी जाने कौन-कौन सी पत्र-पत्रिकाएं। सबमें गांधी के समाचार भरे पड़े थे। एक नहीं, कई ख़बरें। अख़बारों में गांधी की तस्वीरें देखकर चैप्लिन के दिमाग़ में फ़िल्म के फ़ुटेज-सा दृश्य चलने लगा- मिस्टर गांधी का भी मेरी ही तरह दुबला-पतला शरीर है। मेरे फ़िल्मी मसख़रे की ही तरह महात्मा की वेशभूषा भी बेमेल है। मुझे फ़िल्म में देखकर दर्शक हंसते हैं, शायद मुझसे ज़्यादा मेरी बेचारगी पर हंसते हैं। लेकिन यहां तो बेमेल वेशभूषा वाले गांधी के स्वागत में लंदन के हज़ारों अधनंगे श्रमिक ख़ुशी का इज़हार कर रहे हैं। लेकिन नंगे फ़कीर की इस ड्रेस में देखकर इसी गांधी से चर्चिल चिढ़ते हैं। फ़िल्मों में बेमेल सूट-बूट-हैट में मुझको देखकर तो वह ख़ूब हंसते हैं! चैप्लिन गांधी से मिलने चल पड़ा।