2019 का फ़िल्मी सफ़र ‘वार’ और ‘भारत’ जैसी एक्शन फ़िल्म, ‘गली बॉय’ और ‘सुपर 30’ जैसी कंटेंट मटेरियल, ‘छिछोरे’ जैसी दोस्ती यारी मस्ती और ‘कबीर सिंग जैसे नए ज़माने के इश्क़ के ख़ुमार से भरा रहा लेकिन साल की शुरूआत से ही कंटेंट के साथ सत्य घटनाओं पर आधारित फिल्मों ने कब्ज़ा किया जिसका असर आने वाले साल भी दिखेगा, पिछले कुछ सालों में बायोग्राफ़ी वाली फिल्मों ने बड़ा कब्ज़ा किया था नीरजा, सूरमा, मंटो जैसी फिल्मों ने बिना बड़े सुपरस्टार के भी अच्छा काम किया और फिर आमिर ख़ान की दंगल ने तो रिकॉर्ड का कीर्तिमान ऐसा बनाया कि शायद आमिर ख़ुद यह सोच रहें होंगे कि अब इसके आगे क्या ही बनाएंगे। बायोग्राफ़ी का ख़ुमार हालांकि पिछले साल से उतरने सा लगा कुछ सेल्फ-स्पोंसर्ड और राजनैतिक शख्सीयतों की फिल्मों ने ना सिर्फ ख़राब प्रदर्शन किया बल्कि लोगों को यह समझ आ गया की फिल्मों में अब कंटेंट से ज़्यादा विज्ञापन हो रहा हैं. साल की शुरूआत में ही सर्जिकल स्ट्राईक पर आधारित फ़िल्म ऊरी ने जैसे देश के मन को पढ़ लिया और बिना किसी बड़े स्टारकास्ट के फ़िल्म ने बड़ी ओपनिंग लेते हुए नए मापदंग और बॉलीवुड को विक्की कौशल जैसा स्टार दिया।
बायोग्राफ़ी पर भारी सत्य घटनाओं पर आधारित फ़िल्में
बॉलीवुड का फ़िल्मी सफ़र अब बायोग्राफ़ी से सत्य घटनाओं पर आधारित फिल्मों की तरफ़ बढ़ चुका हैं, ठाकरे, मणिकर्णिका, पी.एम.नरेंद्र मोदी, सांड की आँख जैसी फिल्मों से जहां थियेटर ख़ाली रहा और प्रोड्यूसर्स को बड़ा नुक्सान उठाना पढ़ा तो वहीं बाहुबली स्टार प्रभास की बिग बजट फिल्म ‘साहो’ ने भी कुछ खासा प्रदर्शन नहीं किया, जबकि कम बजट की कुछ सत्य घटनाओं पर आधारित फिल्मों जैसे ‘आर्टिकल 15’, ‘मिशन मंगल’, ‘रोमियों अकबर वॉल्टर’ की जॉन अब्राहम स्टारर और आशित चटर्जी के विपरीत रोल ने लोगों को थियेटर तक खींच लाने में कामियाब रहीं, वहीं आयुष्मान की ऐस्पेरिमेंटल फ़िल्में ड्रीमगर्ल और बाला ने भी खूब वाहवाही बटोरी. यही फर्क हैं कि व्यक्ति विशेष पर आधारित बायोग्राफ़ी फिल्मों से इस साल सत्य घटनाओं पर आधारित फिल्मों ने बाज़ी मार ली हैं. ‘आर्टिकल 15’ के डायरेक्टर अनुभव सिन्हा ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि आज कल लोग फिल्म में बेहतर कंटेंट को तवज्जो दे रहे हैं, सशक्त आवाज वाली फिल्मों को ऑडियंस पसंद कर रही हैं, एक इवेंट के दौरान अनुभव सिन्हा ने मनोरंजक और प्रासंगिक फिल्मों के बीच तुलना करते हुए कई बातें बताईं. अनुभव का कहना है कि जिन फिल्मों की अपनी सशक्त आवाज है उनकी तुलना में लोग शुद्ध मनोरंजक फिल्मों को गंभीरता से नहीं लेते. उन्होंने कहा, “जब से मैंने मुल्क और आर्टिकल 15 जैसी सामाजिक रूप से प्रासंगिक फिल्में बनानी शुरू की हैं, तब से दर्शकों से उन्हें और अधिक स्वीकृति मिलनी शुरू हो गई है.”
फ़िल्में जिन्होंने थियेटर में नहीं दिलों में जगह बनाई
आर. माधवन और सैफ़ अली खान की 2001 में एक फ़िल्म आयी थी ‘रहना हैं तेरे दिल में’ जिसनें थियेटर में तो कोई ख़ासा बिजनेस नहीं किया था लेकिन जब लोगों ने यह फ़िल्म टेलीविज़न के माध्यम से देखी तो पूरा दशक इस फ़िल्म ने दिलों पर राज किया, आज भी उस फ़िल्म के चाहने वाले आपको अपने नज़दीक मिल जाएंगे, यह उस दौर की कबीर सिंग फॉर्मूले की फिल्म थी जिसमें एक बैडबॉय इमेज के लड़के को निहायत ख़ूबसूरत और शरीफ लड़की से ईश्क हो जाता हैं. सोनचिरैया और हामिद यह ऐसी फ़िल्में हैं जो रिलीज़ के बाद थियेटर में तो खासी जगह नहीं बना सकीं लेकिन जिन्होंने भी बाद में इन फिल्मों को देखा, उन्होंने फ़िल्म को दिल से सराहा। यह फ़िल्में नाकामयाबी के बाद भी या तो फेवरेट की लिस्ट में हैं या विशलिस्ट में.
अभिनेत्री का कंटेंट एक्सपेरिमेंट
यह साल केवल अभिनेताओं की कंटेंट फिल्मों के नाम नहीं रहा हैं, बिग बजट फिल्मों के बीच सोनाक्षी सिन्हा की ख़ानदानी शिफ़ाख़ाना भी रिलीज़ हुई जिसमें अपने पिता की यूनानी शिफ़ाख़ाना को बचाने के लिए एक बेटी का संघर्ष दिखाया गया हैं, इस फ़िल्म में यौन रोग से पीड़ित लोगों का एक भारतीय लड़की इस तरह समाज की कानाफ़ूसी से बचते बचाते ईलाज करती हैं और अपने पिता की विरारत और आयुर्वेदिक नुस्खें को आज के समाज में महत्त्व के साथ रखती हैं यह देखने लायक हैं। हालांकि फ़िल्म के अंदर जिस तरह यौनरोगों के बारे में सामाजिक संवाद से दूरी को लेकर लड़ाई देखने को मिली हैं वह थियेटर में भी देखने को मिली क्यूंकि हर मुद्दे पर अपने पिता शत्रुघन सिन्हा की तरह बेबाक राय रखने वाली सोनाक्षी सिन्हा को फैंस ने इस बार इस मुद्दे को लेकर निराश ही किया। यहां तक कि आयुर्वेदिक औषधियों पर आधारित इस फिल्म से आयुर्विज्ञान मंत्रालय ने भी दूरी बनाये रखी, ना कोई अवॉर्ड, ना कोइ प्रशंसा। शायद फ़िल्म में दिखाया गया सत्य वाकई सत्य ही हैं कि हज़ारों सालों से दुनियाँ भर में मशहूर और कामियाब हमारी भारतीय संस्कृति की विरासत आयुर्वेद से ख़ुद भारतीय समाज ने भी मुँह मोड़ रखा हैं। इरफ़ान की एक फिल्म का डायलॉग यहाँ बराबर फिट होता हैं कि “भारत में अंग्रेजी भाषा नहीं क्लास हैं” यानि कि अपनी संस्कृति से जुडी इन फिल्मों को आज भी हमारा समाज और दर्शक हीन भावना से ही देखता हैं.
वेब सीरीज़ और अनसेंसर्ड कंटेंट ने जमाए क़दम
बचपन में स्कूल, खेल के मैदान, ट्यूशन और घर की बातों से एतद जब हम पंचतंत्र की कहानियां पढ़ते थे, तो काल्पनिक दुनियां की कहानियों में जैसे खो जाते थे, घर पर किसी को पता नहीं होता था कि आख़िर हम किन कहानियों को जी रहें हैं. एक रहस्य से भरी अपनी ख़ुद की दुनिया बसा ली जाती थी जहां किसी का कोई नियम और सेंसरशिप काम नहीं करती थी। कुछ इसी तरह हैं डिजिटल मीडिया की वेबसीरीज़ का जादू जहां अनसेंसर्ड स्टोरीज़ में आम लोगों की आम भाषा, अकल्पनीय कथाएं और निष्पक्षता की लक़ीर इतनी साफ़-साफ़ नज़र आती हैं कि लगता हैं कि कुछ कहानियां ऐसी भी हैं जो सच बोलती हैं.
एक रिपोर्ट के अनुसार दुनियां भर में हो रही डिज़ीटल क्रांति के चलते अधिकतर संचार नेटवर्क्स एक्पर्ट का कहना हैं कि 2030 के आते तक टेलीविज़न और थियेटर कल्चर पूरी तरह समाप्त हो जाएगा, फिल्मों का आपके डी.टी.एच. और मोबाईल या होम थियेटर सिस्टम में सीधा प्रसारण द्वारा किया जाएगा, यहीं वजह है कि दुनियां भर की नज़रें आज वेब-सीरीज़ की तरफ देख रहीं हैं. दि सेक्रड गेम्स् से हुयी बड़ी शुरूआत में सैफ़ अली खान जैसे बड़े नामों ने वेब सीरीज़ की तरफ हाथ आगे बढ़ाया, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और सैफ़ स्टारर वेब सीरीज़ ने डिजीटल मार्केट को नई उचाईयों तक पहुंचाया हैं. देखते ही देखते इमरान हाशमी, अर्जुन रामपाल, मनोज बाजपाई जैसे फ़िल्मी सितारे एक-एक करके डिजीटल प्लेटफार्म की तरफ बढ़ चुके हैं तो वहीं पंकज त्रिपाठी, अली फज़ल, हुमा कुरैशी की अदाकारी ने डिजीटल प्लेटफॉर्म पर 2019 में गज़ब का काम देखने को मिला हैं.
2019 में रिलीज़्ड सेक्रेड गेम्स् पार्ट-2 का रिस्पॉन्स कुछ ख़ास नहीं रहा, लोगों को बोल्ड और खुद को भगवान कहने वाला गणेश गायतोंडे का किरदार जब फिल्म में सरकारी एजेंसियों के इशारे में घूमता दिखा तो लोग पार्ट-1 के गायतोंडे को ही पूरी वेबसीरीज़ में तलाश करते रह गए, वहीं मिर्ज़ापुर में कालीन भाई के किरदार में नज़र आये पंकज त्रिपाठी जो हॉलीवुड की फिल्म जॉन-विक की तरह दिखाए गए, जहाँ हीरो का अपना शहर, सिक्का, रसूख और क़िरदार है तो इसे लोगों ने सराहा, बर्ड ऑफ ब्लड में इमरान हाशमी आतांकवाद से लड़ते नज़र आये तो वही 2012 में हुए निर्भया रेप केस पर बनी वेबसीरीज़ दिल्ली क्राईम ने जैसे किसी डॉक्यूमेंट्री फिल्म की तरह सारे किरदारों, गुनहगारों, इन्साफ के तक़ाज़ों के बीच दर्शक को खुले तौर पर सोचने पर मज़बूर कर दिया। इसी बीच मशहूर पत्रकार और राजनेता एम.जे.अकबर के बेटे प्रयाग अकबर की किताब ‘लाईला’ पर बनी एक छोटी बच्ची की कहानी में धार्मिक कट्टरपंथ से होने वाले नतीजे को दर्शाया गया हैं तो मनोज बाजपाई स्टारर ‘फैमिली मेन’ की कहानी मुम्बई में रहने वाले एक आम से दिखने वाला पारिवारिक व्यक्ति की है जो असल में एक भारतीय एजेंट है और वह किरदार में अपने पारिवारिक होने के बाद भी देश के दुश्मनों का बखूबी सफाया करता हैं.
बेहतरीन लेख है ! जब तक फिल्म के बारे अच्छी समीक्षा ना हो तो मेरा उसे देखने का बिल्कुल भी मन नहीं करता !
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