हाकिम का हुक्म हैं कि चंद नज़्में पेश की जाये,
अगले ही बरोज़-मंगल नाशिष्त होनी हैं,
मैं तो भला घर पे बैठा ख़ुदको ये तसल्ली दें रहा था,
कि अबकी बार जो मैं घर पर क़ैद रहूँ तो कुछ ग़ज़लें निकल आये,
ख़ैर अपनी सोचना तो वैसे ही छोड़ रखा हैं,
अब कुछ ग़ज़लें ना भी लिखें यो हर्ज़ क्या है,
मैं कोई ग़ालिब तो ना हुआ जो लोग गली मोहल्लों में हमें सुने और सुनाने लग जाये,
ना ये देहली है कि उर्दू और ज़ुबान की समझ वाले जौहरी शहर में घूमते हों,
हालत तो ये हैं कि हिन्दी भी कहूँ तो इलाक़े में लोग तंज कसते है, कि अमीर तुम छत्तीसगढी में कुछ लिखों तो हम हुकूमत से स्टेज भी दिलाएंगे और अवार्ड भी.
मगर अल्लाह तौबा, ये सोचकर कि मादरी ज़ुबान मेरी जो उर्दू हैं,क़घबराहट होती हैं कि जवानी बेरोज़गारी में जाएगी औऱ बुढापा खटिया पर,
हाँ इस बात पर ताज्जुब भी होता हैं कि वालिद साहब और उनके वालिदैन हज़रात से होते हुए
यानी मीर वासर अली,
मीर अतर अली,
सैयद महबूब अली,
दादा सैयद मोहम्मद अली और
वालिद सैयद अकबर अली हाशमी से होते हुए मैं छटी पीढी का हूँ मगर मेरी ज़ुबान में उर्दू आखिर ज़िंदा कैसे रह गई ज़ुबान से अंधेरी इस ज़मीन पर,
खुदा ख़ैर ही करें कि यहां ना ज़ुबान की समझ हैं ना फलसाफ़ियों का आना जाना,
हुकूमत ने रिसर्च पर पाबंदी लगा रखी है कि कही पढ़ लिखकर लोगो के पास दिमाग ना आ जाये, इसलिए अजीबों-ग़रीब दुनियां भर की बहस सुनता हूँ, नुक्कड़ पर बैठा एक चाय कि दुकान पर वो चाय वाला मुझे अमरीका में ट्रम्प के जीतने पर हिंदुस्तान को होने वाले फायदे गिना रहा था,
मुझसे वालिद साहब अक्सर कहते हैं कि जाओं घर से निकलकर घूम आओ, तुम्हारे दोस्त नहीं हैं क्या कोई, किसी स्व बात कर आओ, शहर घूम आओ, दिन भर और रात भर यूं हफ़्तों-महीनों घर पर मत गुज़ारा करो, इस चाय वाले ने मुझे जवाब बता दिया है मगर, अब मैं वालिद साहब को हर बार उस चाय वाले के नाम पर तसल्ली दें देता हूँ कि देखों बाहर ऐसे लोग घूम रहें है आखिर मैं किनसे बात करूं.
इसी बीच हिंदुस्तान और पाकिस्तान के झगड़े इतने बढ़ गए है कि हाय, अब तो ग़ुलाम अली और राहत साहब भी सरहद की लकीरों में क़ैद है, बचपन से सुना था कि सरहद के पास दूसरी तरफ से गोलियां चलती है हालाँकि यही बात पाकिस्तान भी कहता हैं, अब होता तो ये था कि हम गोलियां तो खा लिया करते थे मगर क्रिकेट और मौसीक़ी से दिल बहलाये रखते थे, ग़ुलाम अली की ग़ज़लें, नुसरत फ़तेह अली ख़ान की क़व्वाली वो काम कर जाती थी जो यूनाईटेड नेशंस भी ना कर सका कभी और वो ये कि मुल्क में जंग चलती भी रहें मगर आवाम के दिलों से नफरतें मिट जाती थी, वो मुहब्बत की शमा हुकूमत ने बुझा डाली हैं..!!!
“कहते हैं नफरतों का दौर है पड़ोस में,
ये क्या की मोहब्बत हमसें भी भूली.”