मैं अपनी ही बातें करता रहूँ तो कहोगे मुब्तिला-ए-गुरूर हुआ है अमीर,
जो करूँ मैं उनकी ही बातें तो कहोगे मुब्तिला-ए-हुस्न हुआ है शायद,
जो कहूँ मैं, मैं ना रहा अब वो बन गया जो तुम चाहते थे तो कहोगे मैं बिक गया हूँ काले अंग्रेजों की हुकूमत के हाथों,
जो मैं कहूँ कि हां मुझमें बाक़ी है कुछ फ़न अब भी तो कहोगे बिक जाता तो फ़कीर ना कहलाता,
मैं बिका हुआ ही तो हूँ जो इसलिए काफ़िर कहते है लोग मुझको,
ये कौन जानता है इबादत में मेरी बस तकल्लुफी ना रही है खुदा की जानिब,
मुझसे जुड़े लोगों में आस देखता हूँ, वो चाहते है मैं अमीर हो जाऊं दौलत से,
वो मोल नहीं लगा पाते है मैं कितनी दौलत लुटाकर बैठा हूँ दुनियां की,
मेरे जाने के बाद तुम कोई हमनावां ज़रूर कर लेना,
ज़ालिम ना समझना मुझे मैं गैरों की तरह क्योंकि मैं नसीब के सहारे जीने वालों में से नहीं जिया,
कम ही लोग है जो मुझे पहचानते है अंदर तलक़ कि मैं क्या हूँ और क्यूँ हूँ शायद ये भी,
ज़िन्दगी की हर ख्वाहिशें छोड़ देने के बाद भी ना जाने क्यूँ इस इश्क़ को मेरे हिस्से ही आना था.. !
#बड़बड़
बहुत खूब। बहुत ही अच्छा लिखा है आपने।
LikeLiked by 2 people
हाँ जी,ज़नाब !!कुदरत ने इश़्क की दौलत के काबिल आपको ही समझा है…..
LikeLiked by 1 person